
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥1॥
यदा यदा => जब-जब
हि => वास्तव में
धर्मस्य => धर्म की
ग्लानि => हानि
भवति => होती है
भारत => हे भारत
अभ्युत्थानम् => वृद्धि
अधर्मस्य => अधर्म की
तदा => तब तब
आत्मानं => अपने रूप को रचता हूं
सृजामि => लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ
अहम् => मैं
मंत्र का अर्थ:
जब-जब इस पृथ्वी पर धर्म की हानि होती है, विनाश का कार्य होता है और अधर्म आगे बढ़ता है, तब-तब मैं इस पृथ्वी पर अपने रूप को रचता हूँ और लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥2॥
परित्राणाय => साधु पुरुषों का
साधूनां => उद्धार करने के लिए
विनाशाय => विनाश करने के लिए
च => और
दुष्कृताम् => पाप कर्म करने वालों का
धर्मसंस्थापन अर्थाय => धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए
सम्भवामि => प्रकट हुआ करता हूं
युगे युगे => युग-युग में
मंत्र का अर्थ:
सज्जनों और साधुओं की रक्षा के लिए, दुर्जनो और पापियों के विनाश के लिए और धर्म की स्थापना के लिए मैं हर युग में अवतार लेता हूँ